बुधवार, 24 जनवरी 2018

ख़ुल्क़-ए-ज़िन्दगी



ख्वाइशों से महरूम नही हूँ
पर मशगूल हूँ ऐ ज़िन्दगी 
ख़ारज़ारों में तेरे मुद्दत से फँसा हूँ... 


इख़्तिलाफ़ जो तेरे मेरे हैं

दरमियाँ सालों से लिये बैठी है तू...

कसम ज़ख्म देने की 

मैं बद-बख़्त होकर रह गया हूँ


ख़ल्क़ भी सहम जाते हैं मुझ

फ़र्द की औकात क्या

बा-हुनर मुख़ालिफ़त ख़ुल्क़

है जो तेरी मेरे चश्म-ए-तसव्वुर

को खुलने से पहले हि

क़ैद-ए-बा-इख़्तियार करती  हैं....
#दीपक©✍



(मशगूल-व्यस्त )-(ख़ारज़ारों-काँटो का जंगल)

(इख़्तिलाफ़-मतभेद)-(बद-बख़्त-बदकिस्मत)

(ख़ल्क़-लोग)-(फ़र्द-व्यक्ति individual)

(मुख़ालिफ़त-विपक्ष में)-(ख़ुल्क़-आदत)

(चश्म-ए-तसव्वुर - कल्पना की आँखों)

(बा-इख़्तियार - अधिकार पूर्वक)

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