बुधवार, 24 जनवरी 2018

ख़ुल्क़-ए-ज़िन्दगी



ख्वाइशों से महरूम नही हूँ
पर मशगूल हूँ ऐ ज़िन्दगी 
ख़ारज़ारों में तेरे मुद्दत से फँसा हूँ... 


इख़्तिलाफ़ जो तेरे मेरे हैं

दरमियाँ सालों से लिये बैठी है तू...

कसम ज़ख्म देने की 

मैं बद-बख़्त होकर रह गया हूँ


ख़ल्क़ भी सहम जाते हैं मुझ

फ़र्द की औकात क्या

बा-हुनर मुख़ालिफ़त ख़ुल्क़

है जो तेरी मेरे चश्म-ए-तसव्वुर

को खुलने से पहले हि

क़ैद-ए-बा-इख़्तियार करती  हैं....
#दीपक©✍



(मशगूल-व्यस्त )-(ख़ारज़ारों-काँटो का जंगल)

(इख़्तिलाफ़-मतभेद)-(बद-बख़्त-बदकिस्मत)

(ख़ल्क़-लोग)-(फ़र्द-व्यक्ति individual)

(मुख़ालिफ़त-विपक्ष में)-(ख़ुल्क़-आदत)

(चश्म-ए-तसव्वुर - कल्पना की आँखों)

(बा-इख़्तियार - अधिकार पूर्वक)

ख़ुल्क़-ए-ज़िन्दगी


रविवार, 14 जनवरी 2018

मन चरखी सरीखा मेरा

मन चरखी सरीखा मेरा भरा है
रूहानी इश्क़ की रेशमी डोर से
हर उलझन को सम्भल कर  सुलझाया
तब उतारा है मैंने इसमें कि
कहीं कोई अनचाही गाँठ 
न पड़ जाए मेरे इश्क़ के धागों में
मन चरखी सरीखा मेरा...
दो दिलों वाली पतंग पर तेरा नाम
लिखा है एक बार किफ़ायति
मुस्कान से इसमें अपनी सहमति
का मोनोकइट मंझा जोड़ कर
छुड़ाईया दे दो लपक कर ,
पकड़ दूंगा तुमको फिर
मन चरखी सरीखा मेरा...
हम तुम तनाएँगे अपनी मोहब्बत
संसार के बंदिशों से भी ऊँची जो
हर भेदभाव ऊँच नीच जाति और
धर्म के डब्बू-गिलासा-पाटा और
मछली-काट को मुँह चिढ़ायेगी
और उनको ऊपर ले जाने वाली 
नफ़रत की बेहया डोर को
चक चला के बगली मारेंगे
अहा! चिल्लायेंगे भाक्काटे...
#दीपक©✍

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

शिव ही ब्रह्माण्ड है


कश्मकश

नहीं पता कि मिलना क्या है-
इस फटी-चिथड़ी ज़िन्दगी में सिलना 
क्या है,
तू ही बता तू तो सब जानता है

रोऊँ के हँसूँ -
कि उधड़ने से बचूँ, 
या बिछ जाऊँ कालीन सा और
हँसता रहूँ-पिसता रहूँ
तू ही बता तू तो सब जनता है
खो दूँ मैं क्या ,
क्या तुझसा पा लूँ
मेरे जहाँ में मिल तुझमें समा लूँ
रौशन हो जाऊँ तेरी लौ से मैं
तुझको अपना "दीपक" बना लूँ,

नहीं तो छोड़ दूँ
जग धूमिल को कुछ भी साफ नहीं जब
या जीवन के मैले बटुए में
करम के सिक्के खनखना लूँ

तू ही बता तू तो सब जनता है
नहीं पता कि मिलना क्या है-
इस फ़टी-चिथड़ी ज़िन्दगी में सिलना
क्या है.....
#दीपक©✍

कश्मकश