शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018

एक दिन मिलो न


एक दिन मिलो न,
जबसे देखा है लब-ए-बाम पर
मुखड़ा तेरा 
ग़ज़ब छाया है उजाड़ में बादल
दिल के
जैसे उस दिन खिली थी फूलों के
रंग में आज ,
फ़िर वैसे ही खिलो न
एक दिन मिलो न,
चमक से चौंधिया जाए आँखे
जमाने की
वो जो दूसरे हैं गुमान वाले सब
उनकी
एक ऐसी आसमानी मोहब्बत
की रंगीन,
रेशमी पोशाक सिलो न
एक दिन मिलो न,
हाँ , रोकने को पाँव तुम्हारे नहीं
कोई आएगा
ग़र सच्चा है इश्क़ तो ख़ुदा राह
दिखायेगा
जकड़ रखी है जो रज़ा जबरन
वो जो दिल में,
ज़रा उस ज़िद से हिलो न
एक दिन मिलो न,
भौंहें सिकोड़ के निगाहों से जो 
अक्सर हो डराती
जो मुँह फेर कर बेरुख़ी से मुझे
चुपचाप हो भगाती
मैंने सहेज रक्खी हैं तेरी तस्वीर
हर एक अदा की 
नज़रों से रूह तक के गलियारे
में ऐ पत्थरदिल,
फुर्सत निकलकर पिघलो न
एक दिन मिलो न।
#दीपक©✍








एक दिन मिलो न


शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

स्कूल वाला प्यार


पता नहीं क्या होता था
मन उसे देख ख़ुश होता था
दिल पे उसने जैसे मानो
अपने नाम की ढेरों पाई खींच दी
समझ तो कुछ ज्यादा नहीं पाया
हाँ पर उसके साथ ही सुकूँ आया

वो स्कूल का सच्चा प्यार 
मेरी आवारगी मेरा करार
न जाने क्यूँ तक़दीर रूठी एक दिन
जैसे सपनों की साइकिल टूटी एक दिन
बड़ा मनाया गुस्सा प्यार सब दिखाया
उसे नामंजूर था या विश्वास न आया

दूर हुए हम मरा बस मैं
उन अहसासों से चिढ़ा बस मैं
कोमल हृदय पर कुठाराघात था
मैंने क्या किया मेरा क्या पाप था

जवानी की दहलीज पार करते हुए
ज़ख्म कितने ही झेले सहते हुए
कोशिश भी की बहुत हद तक
उभर पाये उस दलदल से तब तक

तभी एक दिन उसका फोन आया
मैंने अपने आपको फिर वहीं पाया
मैंने अपने आपको फिर ....
#दीपक©✍

स्कूल वाला प्यार


बुधवार, 24 जनवरी 2018

ख़ुल्क़-ए-ज़िन्दगी



ख्वाइशों से महरूम नही हूँ
पर मशगूल हूँ ऐ ज़िन्दगी 
ख़ारज़ारों में तेरे मुद्दत से फँसा हूँ... 


इख़्तिलाफ़ जो तेरे मेरे हैं

दरमियाँ सालों से लिये बैठी है तू...

कसम ज़ख्म देने की 

मैं बद-बख़्त होकर रह गया हूँ


ख़ल्क़ भी सहम जाते हैं मुझ

फ़र्द की औकात क्या

बा-हुनर मुख़ालिफ़त ख़ुल्क़

है जो तेरी मेरे चश्म-ए-तसव्वुर

को खुलने से पहले हि

क़ैद-ए-बा-इख़्तियार करती  हैं....
#दीपक©✍



(मशगूल-व्यस्त )-(ख़ारज़ारों-काँटो का जंगल)

(इख़्तिलाफ़-मतभेद)-(बद-बख़्त-बदकिस्मत)

(ख़ल्क़-लोग)-(फ़र्द-व्यक्ति individual)

(मुख़ालिफ़त-विपक्ष में)-(ख़ुल्क़-आदत)

(चश्म-ए-तसव्वुर - कल्पना की आँखों)

(बा-इख़्तियार - अधिकार पूर्वक)

ख़ुल्क़-ए-ज़िन्दगी